महंगाई पर निबंध के अंतर्गत हम बात करेंगे वर्तमान युग में चारो ओंर फैली अवांछित महंगाई के दैनिक जीवन पर प्रभाव पर, एक ऐसा हिंदी निबंध जो आपकी आँखे खोल देगा।
खैर ये आपकी आँखे तो खोलेगा ही, इसके अलावा देश में फैली महंगाई के प्रति आप सभी को जागरूक भी करेगा।
यदि शैक्षणिक लाभ की बात करे तो महंगाई पर हिंदी निबंध आपको स्कूल अथवा college की परीक्षाओ में अछे नंबर दिलाने में भी सहायक सिद्ध होगा।
महंगाई क्या है ?
अर्थ शास्त्र की दुनिया का मूल्य - सम्बन्धी सीधा सा सूत्र है कि जब किसी उपभोक्ता वस्तु की मात्रा कम होगी या घटेगी और उसको लेनेवाले अधिक होंगे तो उसकी कीमत बढ़ेगी।
यही मूल्य वस्तु की अधिकता होने पर घट जाता है या अपने सामान्य स्तर पर पहुँच जाता है।
लेकिन प्रायः: देखा जाता है कि असामान्य स्थिति में हुई मूल्य वृद्धि सामान्य दशा में घटती नहीं है और यह स्थिति एक स्थायी प्रवृत्ति बन जाती है। मूल्य - वृद्धि की यह स्थायी प्रवृत्ति महँगाई है।
महंगाई का ऐतिहासिक स्वरुप
अपने देश में महँगाई के एतिहासिक स्वरूप पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यह प्रवृत्ति वस्तुओं के अभाव के कारण उग्र रूप में प्रकट हुए थे।
लोगों को कपड़े तक कांटे से प्राप्त होते थे और तेल के अभाव में अंधेरे में भोजन करना पड़ता था।
कुछ वस्तुओं की कीमतें तो आसमान छूने लगी थी। लेकिन युद्ध के बाद और देश की आजादी के उपरान्त यह स्थिति समाप्त हो गयी।
आजादी के बाद 1962 में भारत - चीन युद्ध के समय फिर हमारी अर्थ व्यवस्था पर तनाव आया और मूल्य वृद्धि शुरू हुई।
1965 में भारत - पाकिस्तान युद्ध और फिर 1971 और भारत के पाकिस्तान युद्ध के बाद जो अर्थ व्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ा उसने हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया और मूल्य वृद्धि एक प्रवृत्ति के रूप में विकसित होने लगी।
भ्रष्टाचार बना महंगाई का कारन
पिछले दो तीन दशकों में लोगों की कृपा से इस देश में भ्रष्टाचार को पनपने का खुला अवसर प्राप्त हुआ है।
चुनावों के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से चन्दा लेना, विभिन्न रैलियों और आयोजनों के लिए चन्दा लेना एक आम प्रवृत्ति है।
यह चंदा ज्यादातर व्यापारियों से वसूले जाते हैं। कहीं - कहीं व्यापारियों द्वारा अपने लाभ के लिए भी दूसरों के पैसे खर्च किए जाने पर लगा दिया।
इन सभी अतिरिक्त व्यय की भरपाई करने के लिए वयापारी वर्ग ने कीमतों में वृद्धि करनी शुरू कर दी।
आपराधिक गतिविधियों का भी महंगाई बढ़ाने में योगदान
इसी तरह पिछले दो दशकों में अपराधी तत्त्वों की राजनीति में भागीदारी बढ़ रही है। ये अपराधी तत्त्व राजनीति की खाल पहनकर शेर बन गए हैं।
इधर एक दशक से धीरे - धीरे अपहरण का धन्धा भी पनपने लगा है जो पिछले वर्षों में कामधेनु उद्योग बन गया है।
ज्यादातर व्यापारियों या उनके पुत्रों का हो रहा है। उनसे मोटी रकम ली जा रही है। न देनेवालों की हत्याएं हो रही है।
जो वर्ण उन्हें पैसा दंते हैं वे येनकेन टाइपेण इस कमी को पूरा करने के क्रम में मूल्य बढ़ाते हैं।
घूसखोरी मूल्य वृधि का प्रमुख कारण
पिछले दशकों में घूसखोरी एक सर्वव्यापी प्रवृत्ति बन गयी है। चपरासी से अधिकारी तक निन्यानाव प्रतिशत लोग या तो घूसखोर हैं या कमीशनखोर।
काम करने के लिए चढ़ावा चढ़ाना एक अघोषित नियम बना हुआ है।
इस चारित्रिक पतन का एक पक्ष तो पैसा कमाना है और दूसरा पक्ष उस पैसे में दो की घटकों को खरीदना है।
इसका परिणाम यह हुआ है कि आवश्यकताओं की आवश्यकताओं से जुड़ी सामग्रियों पर धन व्यय करने या उन्हें सामाजिक हैसियत का प्रतीक मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
इस कारण उपभोक्ता सामानों की कीमत पर असर पड़ा है और उससे मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के क्रम में मूल्य वृद्धि हो रही है।
हरताल भी है महंगाई बढ़ने का कारक
ट्रेड यूनियनों की मजबूत पकड़ के कारण उत्पादक कंपनियों में ही नहीं सरकारी तन्त्र की नौकरियों में भी अधिक से अधिक सुविधा प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
काम हो या न हो, प्रोडक्शन हो या न हो फीचर्स लगातार बढ़नी चाहिए। महंगाई भत्ता मिलना चाहिए।
इसके लिए हड़ताल, तोड़ - फोड़ आम बात हो गयी है। हड़ताल से कार्य - दिनों की क्षति होती है तो तांड़ - फांड सं आर्थिक क्षति।
उद्योगपति इस क्षति की पूर्ति के लिए कीमतों में वृद्धि कर देते हैं और इसका सीधा असर उपभोक्ताओं पर पड़ता है।
तात्पर्य यह कि अर्थशास्त्र का सीधा - सा सूत्र अब समाजशास्त्र की शिक्षा में संलग्न हो गया है।
कई कारणों से मिलकर महँगाई को बढ़ाने में योगदान किया गया है। इन कारणों का सीधा असर भोजन, वस्त्र जैसी आवश्यक वस्तुओं पर पड़ा है और लगातार मूल्य बढ़ने से जन समुदाय त्राहि - त्राहि कर रहा है।
इस महीने सामान की जो कीमत है वही अगले महीने रहेगी कोई गारंटी नहीं है।
सामान का अभाव नहीं होता है लेकिन मूल्य निश्चित रूप से बढ़ जाता है।
सरकार द्वारा या जन आन्दोलनों द्वारा इस कमी या इस पर अंकुश लगाने के सभी प्रयत्न बौने पड़ रहे हैं।
यदि महँगाई को हनुमान से उपमित करें और सरकार या जन आन्दोलनों के प्रयन्नों को सुरसा मानें तो महँगाई पर रामचरितमानस की ये पंक्तियाँ चरितार्थ होती हैं
जस - जस सुरसा बदन बढ़ाबा।
तासु दुगुन कपि रूप देखाबा ।।
चलते-चलते :
प्रस्तुत महंगाई पर आधारित निबंध में आपने जाना की किस प्रकार से समाज में परिलक्षित होने वाली हर एक घटना का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से महंगाई बढ़ाने में योगदान है।
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