कोयल की कूक वातावरण में गूंजने लगी है और इसी से प्रतीत हो रहा है की सरस्वती पूजा का समय नजदीक आ चूका है. सरस्वती पूजा पर निबंध के अंतर्गत हम वसंत पंचमी के अवसर पर देश के अधिकांस छात्र एवं छात्राओं द्वारा मनाये जाने वाले सरस्वती पूजन के इस पर्व की चर्चा करेंगे.
सरस्वती पूजा पर निबंध
वसन्त पंचमी या सरस्वती पूजा एक तो वसन्त के आगमन की सूचना देने के कारण महत्वपूर्ण है और दूसरे वाणी की जैतारणी देवी सरस्वती के पूजन के कारण स्मरणीय है।
माघ शुक्ल की पंचमी को सरस्वती पूजा होती है। इसी दिन वसन्त पंचमी मौसम के परिवर्तन की सूचना देता है।
यद्यपि वसन्त ऋतु बाद में आता है पर वसन्त के आने की सूचना पहले ही प्राप्त हो जाती है।
हमें तो यह सूचना वसन्त पंचमी को मिलती है।
इसी समय कोयल अपने सुमधुर, रसीने, कर्णप्रिय स्वर में वसन्त की अगवानी करती है।
रूखे - सूखे से जल वसन वासंती लेने लगते हैं।
पल्लवों, पुष्पों से पौधे आच्छादित होने लगते हैं।
वसन्त के आगमन ध्वनि मात्र से शीत अपना प्रकोप कम करने लगता है। सम सम होने लगता है।
पूरी धरित्री सरसों के पीले फूलों वाली वासन्ती साड़ी धारण करने लगता है, जिसके ऊपर गेहूँ के हरे पत्तों वाला आंचल लहलहाने लगता है।
आम के पेड़ मंजरियों से महकने लगते हैं, हवा उस भीनी और मधुर रसपंगी सुगन्ध को चारों ओर बंटने लगता है।
सारी प्रकृति एक विचित्र स्वर से भरने लगती है, उसका रूप एक नई आवाज़ से दमकने लगता है, अंग्रेजी मधुमक्खियों के दमार का संगीत फैलने लगता है।
वसन्त यदि यवन है तो वह यवन का आरम्भ वसन्त पंचमी है। इस समय प्रकृति का रूप एका एक बदलने लगता है।
शीत थोड़ा कम हुआ, स्वभावता जहाँ थोड़ी सी बढ़ी कि प्रकृति अंगड़ाई लेकर जाग उठती है।
प्रिय आगमन की खुशी में संवरने लगती है। किंतु वसन्त पंचमी का महत्त्व, केवल इसलिए नहीं है।
अत्यधिक शीत के प्रभाव के कारण सारी प्रकृति सोयी रहती है। कहीं - कहीं झींगुर की आवाज के अलावे प्रकृति का कोई दूसरा संगीत सुनने को नहीं मिलता।
किंतु ज्योंही मौसम गर्म होने लगता है, छिपी पक्षी निकलने लगती हैं। उनकी रचना गूंजने लगती है।
वैसे ही हमारे देश में अधिक बच्चे जाड़ा में ही जन्मते हैं। या नवजात शिशुओं को ठंढक से बचाने के लिए जाड़ा भर छुपा कर रखा जाता है।
स्वभावता का मौसम आते ही वे बाहर निकलते हैं। उनकी भी किलकारियाँ गूंजने लगती हैं।
जाने सरस्वती पूजा का वसंत पंचमी से सम्बन्ध
इसी सबको देखकर वसन्त पंचमी को वाणी की जितेत्री देवी विद्याप्रदायिनी माँ सरस्वती का पूजन हो जाता है।
इसी को देखते हुए दिन के सम्बन्ध में यह धारणा बनी होगी कि वसन्त पंचमी के दिन ही वाणी , विद्या और ज्ञान की देवी सरस्वती का आविर्भाव हुआ था ।
यदि सरस्वती को ज्ञान , कला और काव्य की देवी मानें तो वसन्तागमन के साथ वाणी के मुखर होने की सम्भावना अधिक हो जाती है ।
शीत में जो मुख मौन रहते हैं , जो कायल चुप रहती है वह वसन्तागमन के साथ बोलने लगती है ।
इस तरह वाणी की मुखरता ही प्रकृति में वसन्तागमन की सूचना देती है ।
इस भाव साम्य के कारण पंचमी को वाणी की मुखरता और वसन्त के आगमन की सूचना देने वाला त्योहार मनाया जाता है।
सभी विद्यार्थी करते है सरस्वती पूजन
चूँकि खुशी दोहरी होती है अतएव उसका प्रकाशन भी उसी तीव्रता के साथ होता है।
इस दिन की तैयारी समय से काफी पहले ही आरम्भ हो जाती है। युवा वर्ग इस कार्य में संलग्न हो जाता है , वयस्क और वृद्ध उनका पथ - निर्देशन करते हैं।
पहले यह त्योहार कहाँ और कैसे मनाया जाता था , कहना मुश्किल है।
किन्तु जब से जानकारी है , इस त्योहार को ग्रामीण - जन अपने ढंग से मनाते हैं किन्तु ज्ञान और शिक्षा से सम्बन्धित लोग अपनी संस्थाओं में मनाते चले आ रहे हैं।
कुछ वर्ष पूर्व तक यह त्योहार मात्र शिक्षण संस्थाओं , छात्रावासों और शोध - संस्थानों में मनाया जाता था किन्तु इधर इसका प्रचलन काफी हो गया है।
शायद मूर्तिकारों की संख्या बढ़ने से या जनसंख्या के विकास के कारण ।
हर गली और हर मुहल्ले में , प्रत्येक गाँव में और प्रत्येक शिक्षण - संस्थान में यह त्योहार मनाया जाता है।
अब तो एक ही शहर में यह त्योहार हजारों जगह मनाया जाने लगा है।
जो स्वयं इस दिन सरस्वती की प्रतिमा स्थापित कर पूजन नहीं करते वे स्थान - स्थान पर घूम - घूमकर पूजा करते हैं।
ज्ञान की देवी सरस्वती की मूर्तियों का दर्शन करते हैं , वसन्त के आगमन की खुशी मनाते हैं और सरस्वती के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
विधिवत होती है माता सरस्वती की पूजा
इस दिन किसी कक्ष को पूर्णतया सजाया जाता है । सरस्वती की प्रतिमा स्थापित की जाती है।
सुधा सौम्य सर में कमलासन पर विराजमान देवी , जिसके हाथ में वीणा और पुस्तक रहती है और चरण तले सेवा के लिए तत्पर , उत्सुक नीर - क्षीर विवेक हँस रहता है।
इस को देखकर सब सहज ही सरस्वती को पहचान लेते हैं ।
पीत वस्त्रों और पुष्प हारों से सुसज्जित प्रतिमा की ओर दृष्टि जाते ही मन श्रद्धा से पूरित हो जाता है।
मूर्ति स्थापना के पश्चात् विधिवत् पूजा - अर्चना होती है , आरती - कीर्तन होता है , प्रसाद का वितरण होता है , अबीर - गुलाल उड़ाकर वसन्त के शुभागमन की घोषणा होती है, झांकियों का घूम - घूमकर दर्शन किया जाता है।
पूजा समाप्ति के पश्चात् वसन्तोत्सव का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है । नाटक होते हैं , संगीत गूंजता है , प्रहसन होता है - आनन्द ही आनन्द बिखेरा जाता है।
दूसरे दिन आरती के पश्चात् जुलूस निकालकर प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है ।
इस पूजन से एक ओर जहाँ वसंतागमन का आनन्द - प्रतिध्वनित होता है , वहीं दूसरी ओर विद्योपार्जन या ज्ञानोपार्जन की प्रेरणा मिलती है।
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