डॉ. बीरबल साहनी पर निबंध एवं उनकी जीवनी

डॉ. बीरबल साहनी पर निबंध के अंतर्गत जानिए About Birbal Sahni In Hindi एवं उनकी जीवनी.

ये एक शिक्षित व्यक्ति रहे और इनकी शिक्षा दीक्षा विदेशों के जाने माने विश्वविद्यालयों में पूरी हुई. 

Birbal Sahni Biography In Hindi के अंतर्गत आप इनके देश के प्रगति में किये गए योगदानो के बारे में अध्ययन करेंगे.

डॉ. बीरबल साहनी | About Birbal Sahni In Hindi

डॉ. बीरबल साहनी का जन्म १४ नवंबर, १८९९ को पंजाब प्रांत के गाँव मेड़ा में हुआ था। उनके पिता का नाम था रुचिराम साहनी। 

उन्होंने लाहौर स्थित गवर्नमेंट कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की। इंटर की परीक्षा में उनका प्रथम स्थान रहा। सन् १९९१ में उन्होंने बी एस सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। 

उच्च शिक्षा के लिए वे लंदन चले गए। वहाँ उन्होंने 'प्रकृति विज्ञान' में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। लंदन विश्वविद्यालय से उन्हें बी. एस. सी. की डिग्री प्राप्त हुई।

सन् १९९४ में उन्हें 'डी एस सी' (डॉक्टर ऑफ साइंस) की उपाधि प्रदान को गई। यह उपाधि उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा दी गई थी। 

उनके एक निबंध पर उन्हें 'सडवरी हार्डीमन अवार्ड दिया गया था। सन् १९३० में डॉ. बीरबल साहनी को लखनऊ विश्वविद्यालय की कार्य समिति का आजीवन सदस्य बनाया गया। 

वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में डॉ. बीरबल साहनी ने प्रशंसनीय कार्य किए। सन् १९४३ में लखनऊ विश्वविद्यालय में भूगर्भ विज्ञान का एक नया विभाग शुरू हुआ था। 

उन्हें उस विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। उन्होंने अपने पिता के नाम पर एक पुरस्कार योजना शुरू की उस अनुसंधान पुरस्कार का नाम है- 'रुचिराम साहनी अनुसंधान पुरस्कार'। 

वह पुरस्कार वनस्पति शास्त्र में सर्वोत्तम अनुसंधान कार्य के लिए प्रदान किया जाता था। उन्होंने एक अन्य विज्ञानी डॉ. सेवार्ड के साथ मिलकर एक पुस्तक तैयार की, जिसका नाम है-'इंडियन गोंडवाना प्लांट्स ए रिवजीन'। 

सिक्के ढालने की पद्धति पर उन्होंने एक पुस्तक तैयार की, जिसका नाम है-'द टेक्निक ऑफ कस्टिंग कॉइस इन एशेंट इंडिया' ।

उन्होंने सिक्कों की जानकारी पाने के लिए कई यात्राएँ कीं। इसके लिए उन्होंने उत्तर में तक्षशिला और नालंदा तथा दक्षिण में हैदराबाद की लंबी यात्राएँ की थीं। 

उनके अनुसंधान कार्यों को देखते हुए सन् १९४५ में उन्हें 'नेल्सन राइट मेटल' का सम्मान दिया गया था। यह सम्मान उन्हें 'न्युमेसमेटिक सोसाइटी ऑफ इंडिया' ने प्रदान किया था। 

वे दो वर्षों तक 'इंडियन साइंस कांग्रेस' में वनस्पति विभाग के अध्यक्ष पद पर रहे और दो बार 'राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। गई।

१० अप्रैल, १९४१ की सुबह हृदय गति रुक जाने के कारण उनकी मृत्यु हो गयी।


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