श्री रामधारी सिंह दिनकर : जन्म, रचनाएँ एवं पुरस्कार

आधुनिक हिन्दी कविता के सशक्त कवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

इनका काव्य आधुनिक भारतीय संस्कृति का काव्य है। भारतीय संस्कृति की विशेषता इसकी सामासिकता है। 

दिनकर ने अपने गद्य-पद्य साहित्य से इसी संस्कृति को व्यंजित करने की चेष्टा की है। 

छायावादी कल्पना और कोमलता, भावुकता और सरसता के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना का प्रबल स्वर दिनकर की निजी विशेषता है। 

ओज और पौरुष की जैसी अभिव्यक्ति आपकी रचनाओं में हुई है, वैसी हिन्दी कविता में अन्यत्र कम ही मिलती है।

बिहार के बेगुसराय में हुआ था जन्म

दिनकर का जन्म 23 सितम्बर, 1908 में बिहार राज्य के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था। 

हाई स्कूल की शिक्षा मोकामा में और कॉलेज की शिक्षा पटना विश्वविद्यालय में पूरी की। 

एक शिक्षक के रूप में आजीविका प्रारम्भ की, परन्तु बाद में वे सरकारी सेवाओं में लगे रहे। 

1933 से रजिस्ट्रार के पद पर, 1943 से 45 तक सम्पर्क विभाग के उप-निदेशक पद पर रहे। कुछ दिनों के लिए मुजफ्फरपुर में हिन्दी के प्रोफेसर भी बने। 1947 से 65 तक, भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। 

दिनकर जी ने भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार के पद को भी सुशोभित किया है। 

देश-विदेश की अनेक यात्राएँ दिनकर जी ने की। 1955 में पोलैण्ड की राजधानी बारसा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में भारतीय कवियों का प्रतिनिधित्व भी किया।

दिनकर को पद्मभूषण कब दिया गया ?

इनकी विशिष्ट कृतियों के लिए 1959 में भारत सरकार ने रामधारी सिंह दिनकर को 'पद्मभूषण' की उपाधि से सम्मानित किया। 

भागलपुर विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट० की मानद उपाधि दी। 

'कुरुक्षेत्र' के लिए इन्हें कई संस्थाओं ने पुरस्कृत किया। उर्वशी पर उत्तर प्रदेश सरकार ने 2500 रु० और ज्ञानपीठ ने एक लाख की राशी प्रदान की. साहित्य अकादमी पुरस्कार भी इन्हें 'संस्कृति के चार अध्याय' पर मिला।

रोएं खरे कर देने वाली वीर रस की कविताये

दिनकर के काव्य के मुख्य दो आयाम है। एक ओज और पौरुष तथा दूसरा, भावों की सुन्दरता और कोमलता। 

हुंकार', 'कुरुक्षेत्र' 'परशुराम की प्रतीक्षा' तक इनके क्रांतिकारी ज्वलन्त विचार है। 'रसवन्ती और उर्वशी इनकी कोमलप्राण रचना है। 

दिनकर के युग में राजनीतिक क्षेत्र के अन्तर्गत जिस तरह की नवचेतना का उन्मेष हुआ था, उसी तरह भारत के सामाजिक क्षेत्र में भी नवीन चेतना की हिलोरें उठ रही थीं। 

इन सभी हलवली की सजीव झाँकी दिनकर के काव्य में मिल जाती है। 

स्वतंत्रता के बाद देश को एक नई आशा बंधी थी, सुख और शांति सजाने की। परन्तु आजाद भारत का नेतृत्व दिनोदिन स्वार्थलिप्त होने लगा। स्वतंत्रता कोरी स्वच्छंदता का रूप लेने लगी। 

दिनकर ने इसकी व्यंजना 'एकाकी' कविता में की है। 

नेता है आजाद जहाँ, चाहे वहाँ जाने को कहकर नेताजी की आजादी पर व्यंग्य किया है, नकली दवाइयों' का व्यापारी स्वतंत्र है कहकर भ्रष्टाचार की ओर संकेत हैं, 'बाकी तो जहाँ देखो डाकुओं का राज है कहकर सामाजिक अराजक मनोवृत्ति की ओर संकेत है और कोई पाँव पैदल चलता, कोई कार में कहकर सामाजिक विषमता का चित्र खींचा गया है।

'रश्मिरथी' की रचना कर कवि ने जातिगत उच्चता के खोखलेपन को हमारे सामने रखा है। 

'कुरुक्षेत्र' में आर्थिक विषमता, शोषण, अन्याय, अनीति के कारण विश्व में जो बार-बार युद्ध की विभीषिका फूट पड़ती है, उस ओर संकेत किया गया है। 

इतना ही नहीं, शांति का सच्चा स्वरूप क्या होता है, इसे दिनकर ने स्पष्ट किया है। 

आज विज्ञान ने हमे भौतिक समृद्धि दी परन्तु मनुष्य का हृदय शून्य ही रह गया। बौद्धिक विकास ने आदमी के हृदय रस को सुखा रखा है और इसके भीषण दुष्परिणाम क्या होंगे, इसे 'दिनकर ने 'कुरुक्षेत्र में विस्तार से कहा है। 

'उर्वशी' एक नये प्रकार की रचना है-काव्यरूपक। महाकाव्य, नाटक और गीतिकाव्य तीनों की विशेषताएँ इसमें है। 

इसमें कवि ने अपना जीवन दर्शन, प्रेमदर्शन और मनोवैज्ञानिक अध्यात्म की बाते की है, दार्शनिक चिन्तन को हृदय की सरलता प्रदान की है। इसमें शाश्वत नर-नारी के मनोविज्ञान पर प्रकाश डाला गया है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनि थे दिनकर

दिनकर की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे एक सिद्धहस्त गद्य-लेखक, सुधी समीक्षक, जागरूक इतिहासकार भी थे। 

'मिट्टी की ओर', 'कविता की भूमिका', 'अर्द्धनारीश्वर', शुद्ध कविता की खोज, 'प्रसाद, पंत और मैथिलीशरण' आदि उनकी प्रौढ़ गद्य रचनाएँ हैं।

दिनकर की भाषा साफ-सुथरी, परिष्कृत, परिमार्जित खड़ी बोली है। दिनकर ने प्रबन्धकाव्य के साथ-साथ मुक्तक रचनाएँ भी की, जो कवि-कर्म की कुशलता की द्योतक हैं। 

दिनकर जी एक उच्चकोटि के वक्ता भी थे। धाराप्रवाह भाषण करने में उनका ओजस्वी व्यक्तित्व और भी मुखर होता था। हिन्दी साहित्य दिनकर का सदा ऋणी रहेगा।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ